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एक ऐसे शख्स की कहानी जिसके पिता मोची तो मां करती थी 12 आने में मजदूरी, बेटे ने शुरू किया खुद का बिजनेस और आज है करोड़ो का मालिक

 
Ashok
एक ऐसे शख्स की कहानी जिसके पिता मोची तो मां करती थी 12 आने में मजदूरी, बेटे ने शुरू किया खुद का बिजनेस और आज है करोड़ो का मालिक

एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च के फैसले के बाद एक बार फिर ये समुदाय चर्चा के केंद्र में हैं. कोई शक नहीं कि आज भी एससी और एसटी कम्‍युनिटी से आने वाले बड़ी संख्‍या में लोग सामाजिक-आर्थिक मानकों पर काफी पिछड़े हैं. हालांकि इन समुदायों से आने वाले कुछ लोगों ने तमाम सीमाओं और बाधाओं को तोड़ते हुए बिजनेस की दुनिया में भी अपनी जगह बनाई है. आज हम आपको ऐसे ही एक शख्स की कहानी बताने जा रहे हैं.

ये कहानी है अशोक खाड़े की- जिन्होंने अपनी मेहनत से एक ऐसा मुकाम हासिल किया है, जो आज सबके लिए एक मिसाल है.
बेहद गरीब और दलित परिवार से आने वाले अशोक आज करोड़ों की कंपनी के मालिक हैं, लेकिन अपना अतीत वे आज तक नहीं भूले हैं. अपनी हिम्मत और मेहनत से अपना मुकद्दर बदलने का दूसरा नाम अशोक खाड़े है. एक ऐसा शख्स, जिसने अपनी जिंदगी में न सिर्फ घोर गरीबी देखी, बल्कि छुआ-छूत का अभिशाप भी सहा है.


इस दलित शख्स के परिवार को कभी दो वक्त की रोटी के लिए जूझना पड़ता था, लेकिन इस शख्स की कंपनी का आज दुनिया भर में 500 करोड़ से ज्यादा का व्यापार है. 4500 लोग खाड़े की अलग-अलग कंपनियों में काम करते हैं. आज की जानी मानी कंपनी दास ऑफशोर इंजीनियरिंग प्राइवेट लिमिटेड के एमडी अशोक खाड़े के संघर्ष की कहानी सत्तर के दशक में महाराष्ट्र के सांगली जिले से शुरू होती है, जहां पर उनका जन्म हुआ था.


पिता मुंबई में पेड़ के नीचे मोची का काम करते थे. मां 12 आने में दिन भर खेत में मजदूरी करती थीं. 6 बहन-भाइयों का पालन-पोषण मुश्किल से होता था. DAS ऑफशोर इंजीनियरिंग प्राइवेट लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर अशोक खाड़े कहते हैं, 'गरीबी साथ में थी. मां गांव में थी बहन की शादी होनी थी. हर सिस्टर की शादी में कर्ज बढ़ता जा रहा था. मैं इतना परेशान हो गया कि सोचा कि कम से कम बहन की शादी तो ठीक से होनी चाहिए, वरना जीने का कुछ मतलब नहीं है.'


अशोक अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि परिवार ने ऐसा भी दौर देखा है, जब बहन-भाइयों की पढ़ाई भी मुश्किल में थी. बड़े भाई दत्तात्रेय खाड़े ने रिश्तेदार के घर रहकर पढ़ाई की. अशोक खाड़े के खुद के पास 12वीं की बोर्ड की परीक्षा के दौरान पेन की निब बदलने के लिए 4 आने तक नहीं थे. अशोक आज मों ब्लां पेन से लिखते हैं, लेकिन साढ़े तीन रुपये के पेन को आज भी संभाल कर रखा हुआ है.


परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, इसलिए अशोक का डॉक्टर बनने का सपना पूरा नहीं हो सका. गरीबी से संघर्ष करके अशोक के बड़े भाई दत्तात्रेय ने मझगांव डॉकयार्ड पर वेल्डिंग अप्रेंटिस की नौकरी कर ली, जिसके कुछ समय बाद अशोक ने भी मझगांव डॉकयार्ड में अप्रेंटिस का काम शुरू कर दिए और बदले उन्हें 90 रुपये स्टाइपेंड मिलने लगी. अपनी मेहनत से उन्होंने शिप डिजाइनिंग की ट्रेनिंग की और फिर नौकरी करते करते मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा भी किया.

पता था तो मुझे लगा कि सिर्फ शिक्षा ही है जो इससे बाहर निकाल सकती है तो हमने शिक्षा पर ध्यान दिया. जब आपकी शिक्षा अच्छी होती है तो आपको कोई रोक नहीं सकता है. अशोक जब मझगांव डॉकयार्ड में काम करते हुए ट्रेनिंग के लिए विदेश गए तो बाकी लोगों को उसी काम के लिए मेरे से 12 गुना ज्यादा वेतन मिलता था और उसी दिन उन्होंने तय कर लिया कि अब नौकरी नहीं करना, अपना बिजनेस करेंगे.


जब अशोक ने मझगांव छोड़ा था तो उनके पास सिर्फ दस हजार रुपये थे. बिजनेस शुरू करने के लिए उनके पास रूम नहीं था. ऑफिस के नाम पर सिर्फ एक टेबल थी. एक टेबल के साथ उन्‍होंने बिजनेस स्टार्ट किया. अशोक खाड़े ने नौकरी छोड़कर एक कंपनी बनाई और तीनों भाइयों दत्तात्रेय, अशोक और सुरेश के नाम के पहले अक्षरों को जोड़कर उसका नाम दास ऑफशोर इंजीनियरिंग रखा और शुरुआत में समुद्र में तेल निकालने वाली कंपनियों के लिए प्लेटफॉर्म बनाने का काम किया. आज तीनों भाइयों ने मिलकर कई और कंपनियां खोल दी हैं.


दास ऑफशोर आज एक जानी मानी कंपनी है, जो ओएनजीसी, एल एंड टी, एस्सार और भेल जैसी बड़ी कंपनियों के लिए काम करती है और समुद्र में 100 से ज्यादा प्रोजेक्ट पूरे कर चुकी है. अशोक खाड़े के जीवन में दो आदर्श व्यक्ति रहे हैं जिन्होंने अशोक को आगे बढ़ने और तरक्की करने के लिए प्रेरित किया. इसमें से एक मदर टेरेसा थीं और दूसरे बाबा साहेब डॉ भीम राव अंबेडकर. अशोक खाड़े आज देश ही नहीं, दुनिया के ऐसे लोगों के लिए भी एक मिसाल हैं जो अपनी मेहनत और शिक्षा के बल पर आगे बढ़ना चाहते हैं.

न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी अशोक खाड़े की संघर्ष की कहानी को पहले पन्ने पर छापा था तो स्वीडन में उनकी संघर्ष की कहानी को इकोनॉमिक्स के छात्रों को बढ़ाया जाता है